मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य के विकास की कल्पना बिना समाज के नही किया जा सकता है। हमारा समाज विभिन्न जातियों, सम्प्रदायों मे बटा हुआ है। उसी का एक अंग है, रंगवा जाति। आजादी के लगभग सात दशक बीत जाने के बाद भी रंगवा जाति आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक, एंव राजनैतिक दृष्टिकोण से इतनी पिछड़ी हुयी है कि, सरकार तक इसकी अभी तक पहुंच नही नही हो पाया है और नही उचित प्रतिनिधित्व हो पाया है। जातीय संगठन बनाने का हमारा उद्देश्य समस्त दलितों और पिछड़ो को उत्थान करना है, परंतु यह काम इतना आसान नही है इसीलिए इसकी शुरुआत हमने अपने विरादरी से किया है। किसी भी जाति का संगठन यदि विकास के लिए है तो बुरा नही है।
विरादरी हितार्थ कार्य करते हुए किसी व्यक्ति या संगठन को अगर बेवजह विवाद मे उलझा दिया जाय तो, इसे विरादरी के लिए अच्छा लक्षण नही माना जा सकता। एक संगठन के नाम पर कुछ सदस्यों द्वारा 2016 के बाद जो बयान दिए गये हैं, उनसे जो विवाद खड़ा होता है वह ऐसा ही विवाद है। अपना काम धाम छोड़कर, अपना बहुमूल्य समय और तन, मन, धन से विरादरी हित के लिए कार्य करने वाले सदस्यों के प्रति विवादास्पद बयान देना, ऐसी बातें करना न सिर्फ काम करने वालों के मनोबल को गिराता है परंतु भविष्य मे भी कोई समाज हित मे कार्य करने से हिचकता है। रंगवा विरादरी मे निःस्वार्थ विरादरी हित मे कार्य करने वाले सदस्यों की संख्या बहुत कम है। उसमे भी कार्य करने वालों सदस्यों के मनोबल को गिराना कहां तक उचित है।
कुछ सदस्य आम रंगवा जाति के सदस्यों को गुमराह करने के लिए और अपना ऊल्लू सीधा करने के लिए अक्सर कहते है कि, अखिल भारतीय रंगवा सुधार समिति बनाकर समाज को दो संगठनों मे बांट दिया गया है, परंतु उनके पास इस सवाल का जवाब नही रहता है कि, 1988 मे जब अखिल भारतीय रंगवा सुधार समिति का गठन हुआ था, उस समय दुसरा संगठन कहां कार्य कर रहा था? बलिया मे, आजमगढ मे, देवरिया मे, महाराजगंज मे, सिद्धार्थनगर मे, छपरा मे, सिवान मे, बिहार के अन्य किसी भाग मे, दिल्ली मे, उदयपुर मे, टाटा मे, कलकत्ता मे, देश के किस भाग मे कार्य कर रहा था? और यदि कार्य कर रहा था तो, वह उस समय कौन सा कार्य किया था?
स्व. प्रभुनाथ जी अपने पत्र दिनांक 20.01.1994 मे अखिल भारतीय रंगवा समाज नामक संगठन के बारे में लिखे थे कि “.. ..केन्द्र भी मृतप्राय – सा है” इसका सीधा सा मतलब है कि, वह संगठन स्तीत्व विहीन हो गया था, जिसका उल्लेख समिति द्वारा प्रकाशित पत्रिका के पृष्ठ संख्या 15 पर भी किया गया है।
1988 से 2016 तक किसी ने क्यों नही कहा कि, रंगवा जाति दो संगठन मे बट गया है। जबकि उस समय उस संगठन के समस्त संस्थापक सदस्य और पदाधिकारी जीवित थे। उन लोगों ने तो अखिल भारतीय रंगवा सुधार समिति के स्थापना एंव अन्य कार्यों मे योगदान भी किए थे। स्व. प्रभुनाथ जी स्वयं समिति के स्थापना मे योगदान किए थे और समिति के 1993 के मीटिंग मे उपस्थित होना भी चाहते थे। स्वास्थ्य के कारणो से उपस्थित न होने पर, उन्होने अपना संदेश, पत्र के माध्यम से उस मीटिंग मे भेजे थे, जिसे उस सम्मेलन मे पढ़कर उपस्थित सभी सदस्यों को सुनाया भी गया था। उत्तर प्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा जब रंगवा सुधार समिति को, रंगवा जाति को पिछड़ा वर्ग मे सम्मिलित करने के लिए इंटरव्यू के लिए आमंत्रित किया गया था, तब समिति के बुलावे पर स्व. संत प्रसाद जी और श्री कल्पनाथ जी सुधार समिति के पदाधिकारियों के साथ लखनऊ गये थे। ये लोग क्यों नही कहे थे कि, सुधार समिति दुसरा संगठन है हम उनके द्वारा रंगवा जाति के हित मे किए गये कार्यों मे सहयोग नही करेंगे। कारण साफ है उस समय के अखिल भारतीय रंगवा समाज के पदाधिकारी और सदस्यों का मकसद था कि, जब उनका संगठन कोई कार्य नही कर पा रहा
है, स्तीत्व विहीन हो गया है, तो किसी भी संगठन या व्यक्ति के द्वारा रंगवा जाति का हित हो रहा हो तो, उसका साथ दिया जाय। उन लोगो का मकसद किसी संगठन या व्यक्ति का हित देखना नही था।
यहां एक तथ्य और उल्लेखनीय है कि 1970 मे स्व. श्री जय नाथ मास्टर साहब के नेतृत्व मे नवयुवक रंगवा सुधार समिति बना था तब भी कोई क्यों नही कहा था कि समाज को दो हिस्सो में बांट दिया गया है।
समिति द्वारा प्रकाशित पत्रिका मे अखिल भारतीय रंगवा समाज नामक संगठन को स्तीत्व विहीन लिखा होने पर कुछ सदस्य कहते हैं कि, अखिल भारतीय रंगवा समाज नामक संगठन का प्रत्येक वर्ष बैठक कोलकत्ता मे उस समय भी होता था और उस संगठन के रजिस्ट्रेशन का नवीनीकरण भी समय समय पर किया गया है, तो अखिल भारतीय रंगवा समाज स्तीत्व विहीन कैसे हो गया? यदि इसको सही मान भी लिया जाय तो-
यहां सवाल उठता है कि
1- क्या वह संगठन केवल कुछ लोगों के बैठक करने और रजिस्ट्रेशन के नवीनीकरण के लिए बना था? यदि हां, तो उससे रंगवा जाति को कौन सा हित होता था? यदि नही, तो उस संगठन के रहने का क्या औचित्य है? इसे स्तीत्व विहीन नही कहेंगे तो, क्या कहेंगे?
2- कोलकत्ता के तथाकथित उस बैठक मे कितने लोग, किस किस स्थान के उपस्थित रहते थे? बैठक की पूर्व सूचना और बैठक में किए गए कार्यवाही की सूचना किसको दिया जाता था?
3- कोलकाता मे बैठे कुछ लोग बलिया, आजमगढ़, देवरिया, कुशीनगर, महाराजगंज, सिद्धार्थनगर, छपरा, सिवान, गोपालगंज और देश के अन्य हिस्सो मे रहने वालें स्थानो के रंगवा जाति के हित का फैसला कैसे कर पाएंगे? जबकी उपरोक्त सभी स्थानों के प्रतिनिधि उस बैठक में सम्मिलित नहीं रहेंगे।
4- क्या बलिया, आजमगढ़, देवरिया, कुशीनगर महाराजगंज, सिद्धार्थनगर, सिवान, गोपालगंज और देश के अन्य हिस्सो मे रहने वालें स्थानो के किसी स्वजातीय भाई या भाईयों को विरादरी हित मे कोई कार्य करना होगा तो वह कोलकत्ता के उन कुछ लोगो से अनुमति लेने जाएगा कि, वह अमूक कार्य करना चाहता है। यदि हां, तो यह अधिकार उन लोगों को किसने दिया है? यदि नही, तो कोई सदस्य अकेले या संगठन बनाकर विरादरी हित मे काम क्यों नही कर सकता? यदि कोई सदस्य या सदस्यों का समूह एक संगठन बनाकर विरादरी हित मे काम करता है तो, क्यों कहा जाता है कि, समाज को दो संगठन मे बांट दिया गया है। शायद इस लिए कि किसी सदस्य को अकेले या संगठन बनाकर काम करने से उनकी (अखिल भारतीय रंगवा समाज के तथाकथित पदाधिकारियों/सदस्यों) पुछ, उनकी महत्ता कम हो जाएगा, उनकी मठाधीशी समाप्त हो जाएगा।
विकसित सभी जातियों मे एक से ज्यादा संगठन है। अगर जातीय हित मे एक से ज्यादा संगठन हो तो हर्ज ही क्या है। एक संगठन रहे और वह कुछ काम ही न करें या केवल मीटिंग मे उनके पदाधिकारी लम्बी लम्बी बातें करें और उस पर काम रत्ती भर भी न करें। ऐसे संगठन के रहने या न रहने से क्या मतलब है। ऐसे संगठन को स्तीत्व विहीन, निष्क्रिय और मृत प्राय नही कहेंगे तो क्या कहेंगे?
निम्नलिखित कुछ बिन्दुओं पर भी विचार करना आवश्यक है-
(क) आज के 30-40 साल पहले रंगवा जाति मे दहेज रहित शादियों होती थी। ताग-पाट पर शादी होती थी। दहेज की मांग विल्कुल भी नही था । विरादरी मे अनुशासन इतना था कि, यदि दण्ड स्वरूप किसी परिवार को विरादरी से बाहर किया जाता था तो वह सबसे बड़ा दण्ड समझा जाता था। विरादरी का कोई सदस्य उस सदस्य के शादी-विवाह, जन्म-मरण के आयोजनों मे सम्मिलित नही होते थे।
उसी एक संगठन, अखिल भारतीय रंगवा समाज के रहते विरादरी मे दहेज प्रथा चरम पर पहुंच गया (जबकि उस संगठन के प्रत्येक मीटिंग मे दहेज रहित शादी पर लम्बी-लम्बी भाषण दिया जाता था), विरादरी की लड़कियां शादी के नाम पर गैर विरादरी मे बेची जाने लगी। विरादरी मे अनुशासन लगभग समाप्त हो गया। विरादरी से बाहर रहना, गैर विरादरी मे शादी के नाम पर खरीद फरोख्त करना, गैर विरादरी मे शादी के नाम पर लड़कियों को बेचा जाना कोई असमान्य बात नही माने जाने लगा। इस पर उस संगठन या किसी का नियंत्रण नही रह गया था।
(ख)- उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल मे रंगवा जाति को पिछड़ा वर्ग मे शामिल कराने के लिए भाषण हमेशा उस संगठन के मीटिंग मे होता रहा, परंतु कार्य रूप मे परिणीत कभी नही हुआ।
बिहार सरकार द्वारा 1951 मे ही रंगवा जाति को पिछड़े वर्ग की सूची मे सम्मिलित कर लिया गया था, जब उस संगठन का स्थापना भी नही हुआ था। फिर भी उसका श्रेय वह संगठन लेने की कोशिश अब तक करता रहा है।
उपर्युक्त बिन्दू (क) मे अंकित कमियों को दूर करने और रंगवा जाति के राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने हेतु विभिन्न प्रयास अखिल भारतीय रंगवा सुधार समिति द्वारा किया जा रहा है और उत्तर प्रदेश मे रंगवा जाति को पिछड़ा वर्ग मे शामिल कराने के पश्चात पश्चिम बंगाल मे पिछड़ा वर्ग मे शामिल कराने की चर्चा किया जाता है तो उस संगठन के तथाकथित पदाधिकारी समाज मे भ्रम फैलाते हैं कि अखिल भारतीय रंगवा सुधार समिति ने समाज को दो भागों मे बांट दिया है।
यहां यह भी बताना आवश्यक है कि, समिति के मीटिंगो और सारे कार्यक्रमों मे सम्पूर्ण रंगवा जाति के सदस्य सम्मिलित होतें है। अफवाह फैलाने वाले कुछ सदस्य भी समिति के मीटिंगो और कार्यक्रमों मे शामिल होते हैं। अखिल भारतीय रंगवा सुधार समिति द्वारा कोई भी कार्य सम्पूर्ण रंगवा जाति के हित के लिए किया जाता है। समिति द्वारा रंगवा जाति को उत्तर प्रदेश मे पिछड़ा वर्ग की सूची मे स्थान दिलाया गया, जिसका लाभ सम्पूर्ण रंगवा जाति के सदस्य ले रहे हैं। जो सदस्य समिति की आलोचना करते हैं कि समिति ने रंगवा जाति को दो संगठनो मे बांट दिया है, वो सदस्य भी उत्तर प्रदेश मे पिछड़ा वर्ग का लाभ और समिति द्वारा किए गये कार्यों का लाभ ले रहे हैं, तो विचारणीय विषय है कि, कैसे कहा जाता है कि, रंगवा जाति दो भागों मे बट गया है?
अब सवाल उठता है कि इस तरह का अफवाह क्यों फैलाने की कोशिश किया जाता है। कारण साफ है उन सदस्यों को इस बात का डर सताता है कि संगठन के नाम पर वर्षो से चली आ रही उनकी मठाधीशी कहीं समाप्त न हो जाय।
समिति का स्पष्ट मानना है कि एक नही, दो नही, दस नही, बीस नही, यदि आवश्यकता हो तो पचासों संगठन संगठन होने चाहिए वशर्ते वह रंगवा जाति के हित मे हो और सभी एक दूसरे से मिलकर काम करें।
ये अफवाह फैलाने वाले सदस्य रंगवा दिवस को अलगवादी दिवस, पाकिस्तानी दिवस, काला दिवस तक कहते हैं। रंगवा दिवस मनाने वाले को ये सदस्य लिखते हैं कि- “rumors are carried by haters, spread by fools,and accepted by idiots.”
इसमें “रंगवा दिवस “को Rumors (अफवाह)
Haters ( घृणा करने वाला ) और Fools (मूर्ख ) रंगवा जाति के ऐसे महानुभावो के लिए प्रयोग किया गया है जिन्होंने रंगवा जाति को उत्तर प्रदेश के पिछड़ा वर्ग की राज्य और केन्द्रीय सूची मे सूची मे सम्मिलित कराने के साथ-साथ जाति हितार्थ अन्य कार्यों मे भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएं है । ये सदस्य सम्पूर्ण रंगवा जाति को idiots ( एक गाली) की संज्ञा दे रहे है । इनकी सोच, बौद्धिक क्षमता, और परवरिश इससे परिलक्षित हो जाता है
रंगवा दिवस का विरोध करने के लिए ये सदस्य कहते हैं कि, किसी जाति के नाम पर दिवस कहां मनाया जाता है? जबकि कई जातियां जैसे चौरसिया और गुर्जर प्रतिहार आदि, अपने जाति के नाम पर दिवस मनाती है। रंगवा दिवस मनाने वाले सदस्यों से ये सदस्य सवाल करते है कि इससे किस गरीब का भला हुआ है? ज्ञात हो कि रंगवा दिवस का मकसद रंगवा जाति को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के लिए रंगवा जाति के प्रचार-प्रसार एंव स्वजातीय सदस्यों मे एकता बनाने के लिए और जातीय हित में कुछ काम करने के लिए है तो, इस तरह के बेतुके सवाल पुछकर रंगवा दिवस मनाने वाले सदस्यो को हतोत्साहित करने का असफल प्रयास उनके द्वारा किया जाता है।
ये सदस्य रंगवा टाईटल तक का विरोध करते हुए कहते है कि, जाति अलग है, टाईटल अलग है। जबकि बहुत सी जातियां जैसे- जैसवाल, अग्रवाल, केशरवानी और राजभर आदि अपना टाईटल जाति सूचक ही लगाती है।
रंगवा जाति के मीटिंगो/सम्मेलनों को ये सदस्य दारू मुर्गा की पार्टी तक कहते हैं। जो सदस्य कभी आज तक रंगवा जाति की ग्राम स्तरीय और जिला स्तरीय मीटिंग तक नही करा पाए वो अखिल भारतीय रंगवा सुधार समिति द्वारा दिनांक 20 अगस्त को बांसडीह, बलिया मे आयोजित रंगवा जाति के प्रथम राष्ट्रीय स्तरीय सम्मेलन को यह कह कर विरोध करते हैं कि, अखिल भारतीय रंगवा समाज नामक संगठन से इस सम्मेलन के लिए अनुमति क्यों नही लिया गया? आखिर उस संगठन को ये अधिकार किसने दिया कि उनसे अनुमति लिया जाय। रंगवा जाति के राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के मुहिम को कमजोर करने के लिए ये सदस्य कहते हैं कि, “जिस जाति मे न MLA/MP न IAS/PCS किस आधार पर निशाचर अंतरराष्ट्रीय पहचान बनायेंगे”। ऐसे लोगों की बौद्धिक क्षमता और इनके परवरिश तथा इनके संस्कार का अनुमान इनकी भाषा से आसानी से लगाया जा सकता है। रंगवा जाति को पहचान दिलाने मे तन, मन, धन से लगे महानुभावो को ये सदस्य निशाचर शब्द से सम्बोधित कर रहे हैं। इसी तरह 1995 के पूर्व कुछ सदस्य सुधार समिति के युवको को कहा करते थे कि, जब प्रभुनाथ जी जैसा व्यक्ति रंगवा जाति को उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग मे शामिल नही कर पाए तो ये लड़के रंगवा जाति को उत्तर प्रदेश के पिछड़ा वर्ग की सूची मे कैसे सम्मिलित करा पाएंगे? उस समय भी समिति उस काम को चुनौती के रूप मे ली थी और 7 वर्षो के अथक प्रयास से 1995 मे सफलता प्राप्त की। हम कवि दुष्यंत के निम्नलिखित पक्तियों के समर्थक हैं-
कौन कहता है आसमां मे सुराख नही हो सकता,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो ।।
हम रंगवा जाति को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के लिए भी कृत संकल्पित है और ये लक्ष्य भी जरूर प्राप्त करेंगे। कुछ सदस्यों को समिति इतनी खटकती है कि वो सोते जागते सिर्फ समिति की ही कमियां खोजने मे लगे रहते है और समिति को समाप्त करने का भी दिवास्वप्न देखते रहते है और यहां तक कहते है कि “सुधार को उखाड़ फेंकना है।” (ये बात अलग है कि समिति को उखाड़ने मे वो खुद ही उखड़ गये है।) आखिर ये सदस्य समिति को खतम करना क्यों चाहते हैं?
समिति द्वारा जब महाराजगंज और सिद्धार्थनगर मे रंगवा जाति का खोज किया गया और दिनांक 22.10.2016 को कम्हरिया बुजुर्ग, महाराजगंज मे रंगवा जाति का विशाल सम्मेलन रखा गया तब तथाकथित आजमगढ़ के एक महान समाज सेवी कम्हरिया बुजुर्ग और ढेकहरी जाकर समिति के अभियान को विफल करने के लिए कहने लगे कि “हमारा संगठन, अखिल भारतीय रंगवा समाज, पुराना है और हमारे संगठन का रजिस्ट्रेशन भी है। अखिल भारतीय रंगवा सुधार समिति नया है और उस समिति का रजिस्ट्रेशन भी नही है। वहां के सदस्य जब उन महाशय को कहे के कुछ दिनो बाद दिनांक 22.10 2016 को यहां (कम्हरिया बुजुर्ग) पर सम्मेलन है, जो भी आपको कहना है उसी मे आकर के कहिएगा। तब वो महाशय वहां से दबे पांव चोरो की तर भाग गए।
पहले ये सदस्य समाज को गुमराह करते थे कि, समिति का रजिस्ट्रेशन नही है हमारे संगठन का रजिस्ट्रेशन है। यहां यह बताना आवश्यक है कि समाजिक कार्य करने के लिए रजिस्ट्रेशन की कोई आवश्यकता नही है। इसका उदाहरण है समिति ने उत्तर प्रदेश मे रंगवा जाति को पिछड़ा वर्ग मे सम्मिलित, बिना रजिस्ट्रेशन के ही कराया था और वो संगठन रजिस्ट्रेशन लेकर भी न उत्तर प्रदेश मे ये कार्य नही करा पाया और अभी तक पश्चिम बंगाल में भी नही करा पाया है। ये सदस्य पहले तो ये कहते थे कि समिति का रजिस्ट्रेशन नही है और जब समिति का रजिस्ट्रेशन हो गया तो कहने लगे कि समिति का रजिस्ट्रेशन फर्जी है।
कुछ सदस्य अपने तथाकथित संगठन और समिति को एक करने की बात करते है। हमारा स्पष्ट मानना है कि, जिसको समिति के लक्ष्य, उद्देश्य और कार्य करने का ढंग पसंद है वो समिति के साथ मिलकर काम कर सकता है। समिति न तो किसी तथाकथित संगठन मे विलय होगी न ही किसी तथाकथित संगठन को अपने मे विलय करेगी। आखिर हम उन सदस्यों के साथ कैसे काम कर पांएगे-
1- जिनका तथाकथित संगठन उद्देश्य हीन, लक्ष्य हीन है, जो पचास सालो मे अपना कोई लक्ष्य, उद्देश्य ही निर्धारित नही कर सका है।
2- जो सदस्य रंगवा दिवस को अलगावादी दिवस, पाकिस्तानी दिवस, काला दिवस कहते है, रंगवा टाईटल का विरोध करते है, रंगवा जाति के सम्मेलनों को दारू मुर्गा की पार्टी कहते है, रंगवा जाति के राष्ट्रीय स्तर पर पहचान कराने के कार्यक्रमो का घोर विरोध करते है, सामूहिक विवाह का विरोध करते हैं, उनके साथ समिति कैसे काम कर पाएगी?
लक्ष्मण प्रसाद रंगवा,
अध्यक्ष,
अखिल भारतीय रंगवा सुधार समिति